आज फ़िल्म “जय भीम” अमेजॉन प्राइम में रिलीज़ हो गई है। उसका प्रचार-प्रसार इसलिये जरूरी नहीं कि उसकी पृष्टभूमि में दलित, आदिवासी, संविधान, जय भीम जैसे शब्द और विषयवस्तु है बल्कि इसलिए भी जरूरी है कि यह फिल्में कमाई के उद्देश्य से नहीं बनाई जाती है।

आज फ़िल्म “जय भीम” अमेजॉन प्राइम में रिलीज़ हो गई है। उसका प्रचार-प्रसार इसलिये जरूरी नहीं कि उसकी पृष्टभूमि में दलित, आदिवासी, संविधान, जय भीम जैसे शब्द और विषयवस्तु है बल्कि इसलिए भी जरूरी है कि यह फिल्में कमाई के उद्देश्य से नहीं बनाई जाती है, जागरूकता के मध्यनजर बनाई जाती है। जिसमें घाटे का जोख़िम भी उठाना पड़ता है।

फ़िल्म के हीरो सूर्या शिवकुमार ने फ़िल्म के रिलीज़ से पहले ही एक करोड़ की राशी तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन को वहां के आदिवासीयों के कल्याण हेतु दी है। फ़िल्म को आगे चलकर कितनी तवज्जो मिलेगी अभी बता नहीं सकते लेकिन इतना तय है कि विषय जब उठता है तब उसके समाधान हेतु हाथ भी उठते हैं और इसी वजह से असली हीरो निकलकर आते हैं।

आर पी विशाल

16 बार घर ढहा, पर नहीं बिखरा सपना… फुटपाथ पर बैठ की पढ़ाई, आखिर इस बेटी ने जज बनकर दिखाया

पानीपत [अरविन्द झा]। उसका घर बार-बार उजड़ रहा था। एक बार नहीं, 16 बार उजड़ा। सिर से पिता का साया उठ चुका था। पर उसका सपना कभी नहीं बिखरा। वो था हमेशा आबाद। …और उसे हासिल करने के लिए उसके पास थी शिक्षा की राह। पानीपत के मुस्लिम परिवार की बिटिया रूबी आखिरकार जज बन ही गई। उसकी कहानी अब दूसरों के लिए प्रेरणा स्रोत बन गई है। पढि़ए कैसे मुश्किलों का सामना कर यह बेटी झारखंड में जज बनी।

जीटी रोड पर ही अनाजमंडी के पास कुछ कच्चे घर (झुग्गी) हैं। इन्हीं में से एक में रहता है रूबी का परिवार। उपयोग में लाए जा चुके कपड़ों में से वो कपड़े चुनते हैं, जिनसे धागा बनाया जा सकता है। वेस्ट कारोबार में मजदूरी करने वाले परिवार की रूबी पढ़-लिखकर अफसर बनना चाहती थी।
चार बहनों में सबसे छोटी रूबी ने अंग्रेजी संकाय में एमए की। संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा भी दी, पर सफल नहीं हुई। इस बीच, प्रशासन ने कच्चे मकान को ढहाने के लिए अभियान चलाए। बार-बार उसका घर टूटा और सड़क पर आने की नौबत आई। इन मुसीबतों के बावजूद रूबी पीछे नहीं हटी। दिल्ली विश्वविद्यालय से वर्ष 2016 में एलएलबी की। वर्ष 2018 में उत्तर प्रदेश और हरियाणा न्यायिक सेवा की परीक्षा में बैठी, पर सफलता अभी दूर थी। मुसीबतें उतनी ही पास।

27 अप्रैल, 2019 को उनकी झुग्गी में आग लग गई। एक माह बाद 27 मई को झारखंड न्यायिक सेवा की परीक्षा थी। ऐसे में कई बार फुटपाथ पर बैठकर पढ़ना पड़ा। प्रारंभिक और मुख्य परीक्षा पास करने के बाद 10 जनवरी 2020 को साक्षात्कार देकर जब लौटी तो मन में सफलता की आस बंध गई। आखिरकार सिविल जज (जूनियर डिविजन) के परिणाम में 52वीं रैंकिंग हासिल की। गत सुबह जब सोकर उठी तो वाट्सएप देखा। परीक्षार्थियों के ग्रुप में सफलता का मैसेज देखकर एक बार आंखें नम हो गईं।

आजीविका सबसे बड़ी चुनौती

दैनिक जागरण से बातचीत में रूबी ने दो वक्त की रोटी का इंतजाम नहीं कर पाना, को जीवन की सबसे बड़ी बाधा बताया। वालिद अल्लाउद्दीन की 2004 में असामयिक मौत के बाद अम्मी जाहिदा बेगम ने हम पांच भाई-बहनों को बड़ा किया। मां ने तंगी झेलकर उसकी हर ख्वाहिश पूरी की। रूबी का कहना है कि भाई मोहम्मद रफी ने हमेशा हौसला बढ़ाया।

दलित रतिभाई मकवाना,सामाजिक व्यवस्था अमानवीय व पीड़ादायक, समाश्या से जूझते हुए कैसे बने कौड़ी से करोडपति

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हर मुसीबत का मुकाबला कर गौरवशाली मुकाम पाया गुजरात का एक प्रसिद्ध शहर है भावनगर । उद्योग के लिहाज से इसका पुराने जमाने से बड़ा महत्व है । खंबात की खाड़ी के पास होने के कारण विश्व के कई देशों के पुराने जहाज को तोड़कर लकड़ी व अन्य कबाड़ का बिजनेस का यह प्रमुख केन्द्र है ।

यहा से कोई 1 किलोमीटर दूर खाड़ी के पास के एक कस्बे में दलित गालाभाई मकवाना अपने पिताजी के साथ रहते थे । कस्बे में सवर्णों की भेदभाव व छुआछूत के अपमान को सहन करना मुश्किल था । अमानवीय व पीड़ादायक सामाजिक व्यवस्था से दूसरे अछूतों की तरह गालाभाई का परिवार भी दुखी था इसलिए अपने परिवार को लेकर भावनगर के दलित बहुल कुम्हारवाड़ा इलाके में बस गये ।

(देखें विडियो जिसमें खुद प्रधानमंत्री मोदी जी सम्मानित करते हुए )

यहां आकर छोटा मोटा कारोबार करने की सोची । बनियों के पश्तैनी कारोबार में हिम्मत करना जोखिम भरा काम था साथ ही पंजी भी नहीं थी इसलिए गरीब गालाभाई के पिताजी ने चमड़े के पिकर बनाने का काम शरू किया । भारत के मेनचेस्टर अहमदाबाद जैसे शहरों में पावरलुम कपड़ा बनाने की काफी मिले थी जिनमें पिकर का उपयोग कपड़ा बनाने के लिए होता था । ये पिकर भैंस के चमड़े से बनता था । पावरलुम के दोनों किनारों पर लगे पिकर टकराने के बाद कपड़े का धागा बुना जाता है । यह आजादी से । बहत पहले की बात है जब चमड़े के काम में अन्य जातियों के लोग तैयार नहीं होते थे इसलिए मकवाना परिवार को इसमें मुश्किल नहीं हुई ।

परिवार के अन्य लोग भी इस में हाथ बंटाते थे । गालाभाई का होनहार बेटा रतिलाल भी बचपन से अपने पिताजी के काम में हाथ । बंटाता था । रतिलाल भावनगर के कुम्हारवाड़ा इलाके में भी चुअछुत  व जातीय अपमान से । दुखी थे । गांव छोड़ने के बाद शहर में भी जात पांत के इस कोढ़ ने पीछा नहीं छोड़ा था ।

 

रतिलाल को बहुत दुख होता था जब सवर्ण उन्हें मंदिर में घुसने नहीं देते थे , नाई बाल नहीं काटते थे । पिताजी ने तो गांव छोड़ते वक्त ही तय कर लिया था कि हमें कुछ करके दिखाना है और हिन्दू पैदा जरूर हुआ लेकिन हिन्दू के रूप में मरूंगा नहीं । इसी के फलस्वरूप बाद में वे सन् 1976 में ही मानवतावादी बौद्ध धम्म की शरण में चले गये और करूणा , शील , दया व प्रेम की महक फैलाते गये ।

 

बाबासाहेब अंबेडकर मेरे प्रेरणा स्त्रोत

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सफलता की बुलंदियों पर पहुंचने के बावजूद कल्पना पहले की तरह अब भी हर पल बाबासाहेब अंबेडकर को जरूर याद करती है  वह अंबेडकर को अपना प्रेरणा स्त्रोत मानती है । जिस प्रकार बाबासाहेब ने अनेक मुश्किलों का सामना करते हुए दलित समाज को सम्मान व स्वाभिमान से जीना सिखाया और कहा कि सौ दिन मेमने की तरह जीने से अच्छा है एक दिन शेर की तरह जीओ । उनका यह कथन कल्पना को काफी प्रेरणा देता है । बाबासाहेब की प्रेरणा से कल्पना से दलित समाज के कल्याण हेतु यथासंभव कुछ करना चाहती है । वह अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को पूरी ईमानदारी से निभना चाहती है । बुद्ध व बाबासाहब की राह पर चलकर वापस समाज को लौटाने वाले यह साहसी महिला उद्यमी सामाजिक गतिविधियों से भी पूरी तरह से जुड़ा हुई है । डिक्की में सक्रिय भागीदारी निभाते हुए युवा दलित उद्यमियों की प्रेरणा बनी हुई है । पद्मश्री का गौरव भी कल्पना सरोज के सिर पर स्वाभिमान से चमक रहा है ।

फिर हौसलों के साथ कल्पना ने उड़ान भरी

कम्पनी में कुछ मंजे हुए हुनरमंद लोगों को रखा । बैंकों से कर्ज लिया , 2006 में बोडने । कल्पना को चेयरपर्सन बनाते समय यह भी शर्त रखी कि कम्पनी पर जो कर्ज बकाया है यह अगले पांच साल में चुका दिया जाएगा साथ में जिन मजदूरों का वेतन बकाया है उत्तम अगले तीन साल में चुकाना होगा । कल्पना के माथे पर कमानी ट्युब्स की मालकिन का था लेकिन वह काटो भरा ताज था । राह में आए दिन तरह तरह की मुश्किलें आ रही थी महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर . आर . पाटिल के समक्ष ही पहले तो मजदरों को पांच करोड बका व बना ठाणे जिले के वाडा स्थान ए भुगतान किया लेकिन कुछ ही दिनों बाद पूरे कारखाने को गिराने के लिए एक बिल्डर का ऑर्डर लेकर आ गया । वह बोला कि उसने तो कम्पनी मेटल्स वाली जमीन पहले हा रखी है । एक बार तो जैसे तैसे रूकवाया । मामला कोर्ट में पहुंचा और छः महीन का मिल गई । आखिर सन 2009 में कमानी टयुब्स का नया कारखाना ठाणे जिले कया पर शुरू हुआ । कल्पना को कारखाने का काम अपने सहयोगियों पर छोड़ ज्यादा सरकार के मंत्रियों , पुलिस अफसरों व कोर्ट के चक्कर काटने में ही लगाना पड़ता यह मामला लगभग ग्यारह वर्ष तक चला आखिर बोर्ड ने सन 2011 में कल्पना ट्युब्स पूरी तरह से सुपुर्द कर दी जब किसी तरह की देनदारी बकाया नहीं थी ।


मेरा सपना था , कमानीट्युस को पुरानी ख्याति दिलाना

लम्बे उतार चढाव के बाद आखिर कमानी ट्युब्स को फिर से सफलता चला दिया जिसका श्रेय कल्पना को जाता है । आज इस चर्चित कम्पनी का साला लगभग 100 करोड़ रूपये का है इससे लगभग तीन सौ कामगारों के परिवार गड ज्यादातर समय म पड़ता था । कोर्ट में का 2011 में कल्पना को कमानी र र से सफलता की डगर पर का सालाना कारोबार का भरण पोषण होता है । यहां तांबे की ट्युब्स बनाई जाती है जो रेफ्रिजरेशन व एयर कडिशनिंग में काम आती है । इनकी देश विदेशों में भारी मांग है । कम्पनी की बाजार में बहुत बड़ी साख बन चुकी है । कच्चा तांबा अफ्रीकी देश कांगो से आता है । कमानी ट्युब्स की सप्लाई अब तेल उत्पादक अरब देशों में ज्यादा होती है । इतना बड़ा कारोबार कल्पना बड़ी मुस्तैदी व कुशलता से संभालती है । कल्पना का सपना है कि कम्पनी को अपनी पुरानी ख्याति मिले और इसके लिए वह पूरी लगन व मेहनत से लगी रहती है इस कम्पनी के अलावा स्टील के सरिए बनाना , कंस्ट्रक्शन , खनन आदि कुछ अन्य क्षेत्रों में भी कारोबार फैला रखा है । बिजनेस में सफल होने के बाद कल्पना ने दुबारा शादी की । बेटा पायलट है तथा बेटी ब्रिटेन से मैनेजमेंट का कोर्स पूरा करने के बाद मां के । बिजनेस में साथ दे रही है । बेटी की भी शादी कर ली है दामाद कमानी कम्पनी के सीइओ है । अब पूरे परिवार में आर्थिक समृद्धि की खुशहाली है ।

जब एक दलित का सेटेलाइट आसमां में जायेगा ।

कमानी कम्पनी अच्छी चल रही है उसे पुरानी ख्याति दिलाना कल्पना का सपना है । लेकिन एक और सपना है वह है दूर दूर तक फैले नीले आसमां में एक सेटेलाइट भेजना और खुद का हेलिकॉप्टर खरीदना । एक दलित का अपना सेटेलाइट भेजना । इसके लिए योजना बना रखी है । यूक्रेन की एक कम्पनी के साथ मिल कर मानव रहित छोटे विमान बनाने की योजना है जिनका उपयोग सेना में एक खोजी विमान के रूप में किया जाता है इसके लिए कार्रवाई चल रही है ।

कड़ी मेहनत का फल – पद्मश्री का सम्मान

आजादी के बाद दलित वर्ग से बहुत कम लोग ऐसे है जिन्हें पद्म पुरस्कारों से सम्मानित किया गया हो । सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न बाबासाहेब अंबेडकर को दिया गया । नाम मात्र की स्कूली पढाई करने वाली एक दलित और वह भी महिला होने के बावजूद कल्पना ने बिजनेस में सफलता हासिल कर पूरे समाज के लिए एक मिसाल कायम की । रास्ते में हजार रूकावटें आयी . पत्थर भी लगे तो कांटे भी चुभे । ताने भी सुने तो

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